औरत

औरत सदियों से सताई गयी है
कभी दासी तो कभी सती बनाई गयी है
इज़्ज़त के नाम पर घर में बेइज़्ज़त होती रही
सिसकती रही और जूठे बरतन धोती रही
हर वक़्त खोट निकाला गया उसके काम में
निकम्मी ठहराई गयी थोड़े से आराम में
शायद कभी नहीं सराहा गया उसे
बेकार है वो ऐसा सदा बताया गया उसे
सब कुछ अपना छोड़ कर एक नए संसार में
चाहती थी खो जाना वो सबके प्यार में
लेकिन बेगाना उसे बना कर रखा गया
और फिर सब को अपनाओ कहा गया
वो कोशशि फिर भी की अपनाने की
नए रंग में ढल जाने की
पर उसके भी कुछ अरमान थे
उसके भी अपने सम्मान थे
लेकिन कहाँ कभी किसी को परवाह रही
बस उसे आज्ञाकारिणी बनाने की चाह रही
कभी बहु बना ताने दे दिया
कभी ननद के बहाने दे दिया
कभी उसे सास का नाम कर दिया
अत्याचारी कह बदनाम कर दिया
अनबन का ऐसा इनाम मिला
वृद्धाश्रम का वरदान मिला
उससे सदा त्याग माँगा गया
परम्पराओं की सुली पर टाँगा गया
ऐतराज़ उसे इसमें भी नहीं था
पर शायद वो दिल से नहीं था
वो बेड़ियों में जकड़ी गयी थी
सामाज की सोच से पकड़ी गयी थी
आज़ाद होने की चाह थी
पर मर्यादाओं की परवाह थी
उसकी ये चाहत अब भड़कने लगी थी
दुनियाँ इस बात को समझने लगी थी
कुछ औरतों ने आवाज़ उठाया
उन्हें हक़ चाहिए दुनियाँ को बताया
फिर जैसे हमेशा से होता आया है
हक की आवाज़ का जादू खोता आया है
जैसे पहले भी औरतों का भी इसमें हाथ था
मर्दों की सोच के साथ औरतों का साथ था
आज भी कुछ औरतें आगे आयी है
हक़ की आवाज़ से अपने सुर मिलाई है
पर ये आवाज़ हक़ की नहीं जहर की है
मर्दों के ऊपर बरसे उस कहर की है
इन्हें औरतों के हक़ से नहीं सरोकार है
बना लिया इन्होंने इसे व्यापार है
स्वार्थ में ये लड़ायी का रूख मोड़ रही
समाज को सुधार नहीं बल्कि तोड़ रही
साथ मिला है इन्हें कुछ बुद्धिजीवियों का
टूटे समाज पर पलने वाले परजिवीयों का
इन्हें औरतों की स्थिति से नहीं वास्ता है
बस सस्ती लोकप्रियता पाने की मंशा है
इस तरह ये अपनी सम्पत्ति बढ़ाती रहेंगी

औरतें फिर भी सतायी जाती रहेंगी

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