फिजायें बोझिल हैं, शाम भी बे मज़ा सी है

फिजायें बोझिल हैं, शाम भी बे मज़ा सी है।
अश्कों से भीगा फलक, कैसी ये उदासी है?

ज़ख़्म हरा कर जाती हैं वो यादें बहारों की,
बरसात की बूँदें आज लग रही सजा सी है।

खाली खाली सा था फ़लक, दिल की तरह,
के कौस ए क़ाज़ाह ने तेरी अक्स तराशी है।

तुझसे ही क्या शिकवा करूँ मैं बेवफ़ाई का,
मौसम की दिल-फरेबी भी तो बेवफ़ा सी है।

शम्मा को गुरुर होगा शान ए बज़्म होने का,
मगर परवाने के बिना महफ़िल तन्हा सी है।

परिन्दे भी आज छोड़ गए खिजाँ देख कर,
लगे जैसे 'शजर' ने ही की कोई खता सी है।

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