हमारा भी एक जमाना था...
हमारा भी एक जमाना था... खुद ही स्कूल जाना पड़ता था क्योंकि बस आदि से भेजने की रीत नहीं थी, ना ही स्कूल भेजने के लिए तैयार कर के बस तक या स्कूल तक ड्राप कर आने की। खुद ही समय देख कर तैयार हो कर स्कूल जाना होता था। नहीं तो घर में कूटे जाने का डर था। माँ पापा ही नहीं कोई भी बड़ा कूट सकता था। पड़ोस के चाचा लोग भी। और देर से स्कूल पहुँचने पर मास्टर जी द्वारा कूटे जाने का। स्कूल भेजने के बाद कुछ अच्छा बुरा होगा ऐसा हमारे मां-बाप कभी सोचते भी नहीं थे। उनको किसी बात का डर भी नहीं होता था। ना ही हमें। पास/फेल यही हमको मालूम था। परसेंटेज से हमारा कभी संबंध ही नहीं रहा। ट्यूशन का चलन बस बड़े घरों में था। बाकि घर में दीदी, बुआ, चाची ये ही हमारे ट्यूटर हुआ करते थे। किताबों में पीपल के पत्ते, विद्या के पत्ते, मोर पंख रखकर हम होशियार हो सकते हैं ऐसी हमारी धारणाएं थी। विद्या कसम की इतनी वैल्यू हुआ करती थी कि कोई भी विद्या कसम खिला कर सच उगलवा ले। विद्या कसम खा कर भी झूठ बोलने वाले को उसके दोस्त ही घटिया समझने लगते थे। इस शर्मिंदगी को कोई नहीं झेलना चाहता था। कपड़े की थैली में, बस्तों में, और एल्यूमीन